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20 सितंबर 2014

उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

एक गज़ल


उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं

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राजेश त्रिपाठी
सदियां गुजर गयीं पर, तकदीर नहीं बदली।
मुफलिस अब तलक जहान में, पीछे खड़े हैं।।

औरों का हक मार कर, जो बन बैठे हैं अमीर।
उन्हें खबर नहीं कैसे-कैसे लोग तकदीरों से लड़े हैं।।

पांव में अब तलक जितने भी छाले पड़े हैं।
वे न जाने कितने बेबस लिए नाले खड़े हैं।।

कोई रहबर अब तो राह दिखलाए ऐ खुदा।
जिंदगी के दोराहे पे , हम जाने कबसे खड़े हैं।।

उनको अपनी शान-शौकत की बस है फिकर।
कितने गरीब मुसलसल, बिन निवाले के पड़े हैं।।

उनकी दहशत, उनके रुतबे का है ये असर।
मजलूम खामोश हैं, उनकी जुबां पे ताले पड़े हैं।।

चौराहे पे भीख मांगता है, देश का मुस्तकबिल।
उनको क्या फिकर, जिनके जूतों में भी हीरे जड़े हैं।।

मुल्क का माहौल अब पुरअम्न कैसे हो भला।
हैवान जब हर सिम्त हाथों में लिये खंजर खड़े हैं।।

किसी बुजुर्ग के चेहरे को जरा गौर से पढ़ो।
हर झुर्री गवाह है, वो कितनी आफतों से लड़े हैं।।

आप अपनी डफली लिए, राग अपना छेड़िए।
छोड़िए मुफलिसों को , आप तकदीर वाले ब़ड़े हैं।।

चांदी-सोने की थाल में जो जीमते छप्पन प्रकार।
खबर उनकी नहीं, जिंदगी के लिए जो कचडों से भिड़े हैं।।

आपका क्या, मौज मस्ती, हर मौसम त्यौहार है।
कुछ नयन ऐसे हैं, जिनके हिस्से सिर्फ आंसू ही पड़े हैं।।

इनसान होंगे जो इनसानों की मुश्किल जानते।
आप तो लगता है कि इनसानों से भी बड़े हैं।
* नाले = विलाप, चीख-पुकार
* पुरअम्न = शांतिपूर्ण

3 टिप्‍पणियां:

  1. कामयाब कोशिश....बेहतरीन रचना...अलग रंग...अलग रूप...वाह...

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  2. इनसान होंगे जो इनसानों की मुश्किल जानते।
    आप तो लगता है कि इनसानों से भी बड़े हैं।

    बहुत सुन्दर रचना !

    जवाब देंहटाएं

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